आयुर्वेद मेंटल हेल्थ

मनोविज्ञान में मन क्या है?

Formulation of mind: सर्वप्रथम तो हम समझ लें अथवा जान लें कि मन से हमारा मतलब दिमाग नहीं है। कई लोग दिमाग को ही मन समझ लेते हैं। न ही मन आत्मा है। तो आखिर क्या है मन आइए जानने की कोशिश करते हैं।

मन का निरूपण : मन तथा मन की विभिन्न वृत्तियो के सम्बन्ध मे विचार करने वाले शास्त्र को मनोविज्ञान कहते है। मन के सम्बन्ध मे भारतीय दर्शनो मे विशद वर्णन किया गया है, विशेषकर योगदर्शन मे मन और मन की वृत्तियो का विस्तृत वर्णन मिलता है। योगाशिष्ठ मे मन को ससारचक्र की नाभि कहा गया है।

मन का ज्ञानेन्द्रियों से होता है घनिष्ठ सम्बन्ध

जब मन साथ होता है, तभी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण करती है। इन्द्रियो द्वारा प्राप्त ज्ञान का सकल्प- विकल्प मन ही करता है और वही कर्मेन्द्रियो द्वारा कार्य करता है। मन की गणना ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनो में होती है, क्योकि वह ज्ञानेन्द्रियो द्वारा अपना-अपना व्यापार तथा कर्मेन्द्रियो द्वारा अपना-अपना कर्म कराता है। बिना मन के न ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विपयो का ज्ञान कर सकती है और न कर्मेन्द्रियों अपनी क्रियाएँ कर सकती है। मन ज्ञान-कर्मेन्द्रिय (उभयात्मक) है। इसकी उत्पत्ति अन्य इन्द्रियो की तरह ही होती है।

क्या है मन का स्वरूप

आत्मा के चैतन्य में मन की प्रमुख भूमिका रहती है। जब आत्मा मन सयुक्त होता है और मन इन्द्रिय सयुक्त होता है एव इन्द्रिय अपने विषय से सयुक्त होती है तभी विषय का ज्ञान होता है। इस प्रकार मन की परिभाषा है- ’सुख-दुख आदि के साक्षात्कार की साधनभूत इन्द्रिय को मन कहते है।“

यदि यह विक्षिप्त हो तो-

  • वर्ण विकृत हो जाता हैं।
  • भक्ति विकृत हो जाती है
  • सभी इंद्रियां भ्रम, मतिभ्रम, भय, गलत धारणा आदि के
  • अधीन हो जाती हैं।
  • बल हानि (बहुत कमजोर हो जाता है)।
  • कई बीमारियों से ग्रस्त।

इसलिए पूर्ण स्वास्थ्य के लिए मन की सामान्य स्थिति आवश्यक है

मन का लक्षण क्या होते हैं

आत्मा, इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ का सम्बन्ध होते हुए भी कभी किसी विषय का ज्ञान होता है और कभी नही होता है। यह ज्ञान का होना या न होना किसी ज्ञान- साधक कारण को सूचित करते है और यह ज्ञानसाधक कारण ’मन’ है, एव ’ज्ञान का सद्भाव और ज्ञान का अभाव होना मन का लक्षण कहा गया है। आत्मा का सब इन्द्रियो के साथ सम्बन्ध होने पर भी एक काल में एक ही विषय का ज्ञान होना और दूसरे विषय का ज्ञान न होना मन की सिद्धि में प्रमाण है।

आंतरिक और बाह्य भेद से मन का विश्लेषण

वैज्ञानिको ने मन की तुलना समुद्र मे तैरते हुए बर्फ की चट्टान से की है। जिस तरह बर्फ की चट्टान का अधिकाश भाग पानी के नीचे रहता है और पानी की सतह के ऊपर रहने वाला भाग सम्पूर्ण चट्टान का थोडा-सा भाग ही होता है, इसी तरह हमारे मन का अधिक हिस्सा इतना छिपा हुआ है कि वह चेतन मन की पहुँच के बाहर है। मन का अधिकाश भाग अव्यक्त मन है। जिस प्रकार व्यक्त मन सक्रिय है, उसी प्रकार अव्यक्त मन भी सक्रिय है ।

मन के गुण क्या हैं?

अणुत्त्व और एकत्त्व मन के दो गुण कहे गये हैं। यदि मन को महत् और अनेक माने तो व्यापक तथा अनेक इन्द्रियो मे एक समय सम्पर्क होने के कारण एक समय मे अनेक ज्ञान होने लगेगे, परन्तु ऐसा नही होता है। अत. मन एक तथा अणुपरि-माण है । कभी-कभी मिठाई खाते समय उसके रूप, रस, गन्ध आदि का एक ही समय मे ज्ञान होने से मन के महान् एव अनेक होने का भ्रम होता है, किन्तु सच यह है कि मन की गति चचल है, इसलिए एक ही काल मे रूप, रस, गन्धादि का ज्ञान होने का आभास होता है।

मन एक बार में एक ही इन्द्रिय के साथ रहता है

वस्तुत उस ज्ञान मे क्रम है और एक के बाद ही दूसरा ज्ञान होता है। जैसे – कमल के सौ पत्तो को ऊपर नीचे रखकर एक सुई से छेदे जाने पर ऐमा आभाम होता है कि सभी पत्ते एक ही साथ छिद गये, किन्तु कमल के पत्ते क्रमश छिदते है और उनके छिदने मे समय का अन्तर सूक्ष्म होने के कारण उनके एक साथ छिदे जाने का भ्रम होता है, मन एक बार मे एक ही इन्द्रिय के साथ रहता है और चंचलता के कारण वह अतिसूक्ष्म काल मे ही दूसरी-तीसरी इन्द्रियो के साथ हो जाता है। मन की क्रियाएँ क्रमश होती है, भले ही काल की सूक्ष्मता के कारण मन की विविध क्रियाओ के एककालिक होने का आभास होता है ।

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