Pitru Paksha 2024 Tarpan Vidhi : सनातन धर्म में एक अत्यंत सुरभित पुष्प है कृतज्ञता की भावना, जो कि बालक में अपने माता-पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है। हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। ‘श्राद्ध-विधि’ इसी भावना पर आधारित है।
पुराणों में श्राद्ध की महिमा क्या है
श्राद्ध की महिमा श्रीमद्भागवत और महाभारत दोनों में उल्लेखित है, और इसे एक महत्वपूर्ण कर्मकांड माना गया है, जिसका उद्देश्य पूर्वजों को सम्मानित करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करना है।
भागवत पुराण के अनुसार, जो व्यक्ति अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध करता है, वह उनके प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करता है और अपने कुल में समृद्धि और शांति लाता है। वहीं महाभारत में अंशुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध की महिमा और उसके महत्व को समझाया। महाभारत के अनुसार, श्राद्ध करना धर्म और कर्तव्य का हिस्सा है और इसे न करने से व्यक्ति पर पितृ दोष लगता है। श्राद्ध से पूर्वजों की आत्मा को संतोष मिलता है, और इससे व्यक्ति के जीवन में शांति और समृद्धि आती है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ कर्मानुसार स्वर्ग नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) में आता है। स्वर्ग में जाना यह पितृयान मार्ग है एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना यह देवयान मार्ग है। पितृयान मार्ग से जाने वाले जीव पितृलोक से होकर चन्द्रलोक में जाते हैं। चंद्रलोक में अमृतान्न का सेवन करके निर्वाह करते हैं। यह अमृतान्न कृष्ण पक्ष में चंद्र की कलाओं के साथ क्षीण होता रहता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को उनके लिए आहार पहुँचाना चाहिए, इसीलिए श्राद्ध एवं पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है। शास्त्रों में आता है कि अमावस के दिन तो पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए।
पृथ्वी पर दान किया गया अन्न पितरों तक कैसे पहुँच सकता है?”
इसको एक उदाहरण से समझते हैं : भारत की मुद्रा ‘रुपया’ अमेरिका में ‘डॉलर’ एवं लंदन में ‘पाउण्ड’ होकर मिल सकती है एवं अमेरिका के डॉलर जापान में येन एवं दुबई में दीनार होकर मिल सकते हैं। यदि इस विश्व की नन्हीं सी मानव रचित सरकारें इस प्रकार मुद्राओं का रुपान्तरण कर सकती हैं तो ईश्वर की सर्वसमर्थ सरकार आपके द्वारा श्राद्ध में अर्पित वस्तुओं को पितरों के योग्य करके उन तक पहुँचा दे। इसी तरह, यदि आपके पूर्वज अभी पितृलोक में नहीं, अपित मनुष्य रूप में हैं। आप उनके लिए श्राद्ध करते हो तो श्राद्ध के बल पर उस दिन वे जहाँ होंगे वहाँ उन्हें कुछ न कुछ लाभ होगा और यदि आपके पिता की मुक्ति हो गयी हो तो उनके लिए किया गया श्राद्ध पलटकर आप ही को विशेष लाभ देगा।
श्राद्ध करना जरूरी क्यों है?
श्राद्ध करने का मुख्य उद्देश्य यह है कि इससे व्यक्ति अपने पितरों (पूर्वजों) का आशीर्वाद प्राप्त करता है। हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि पूर्वजों की आत्मा को शांति और तृप्ति तभी मिलती है जब उनके वंशज श्राद्ध कर्म द्वारा उन्हें सम्मान देते हैं। इससे व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है और वह अपने जीवन में सुख और शांति प्राप्त करता है।
श्राद्ध कर्म करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र या वंशज को होता है। यदि पुत्र न हो, तो अन्य पुरुष संबंधी जैसे भतीजा या भाई भी श्राद्ध कर सकते हैं।
श्राद्ध में पिण्डदान का क्या महत्व है, बच्चों और संन्यासियों का पिंडदान क्यों नही किया जाता
हमारे जो सम्बन्धी देव हो गये हैं, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।
बच्चों एवं सन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता। पिण्डदान उन्हीं का होता है जिनको मैं-मेरे की आसक्ति होती है। बच्चों की मैं मेरे की स्मृति और आसक्ति विकसित नहीं होती और सन्यास ले लेने पर शरीर को मैं मानने की स्मृति सन्यासी को हटा देनी होती है। शरीर में उनकी आसक्ति नहीं होती इसलिए उनके लिए पिण्डदान नहीं किया जाता।
जो शरीर में नहीं रहे हैं, पिण्ड में हैं, उनका भी नौ तत्त्वों का पिण्ड रहता हैः चार अन्तःकरण और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन् वायुमय पिण्ड रहता है। वे अपनी आकृति दिखा सकते हैं किन्तु आप उन्हे छू नहीं सकते। दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज़ को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते हैं। दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते हैं अथवा कोई कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते हैं।
श्रीमद् भागवत के अनुसार कैसे हो पितरों का उद्धार
होमश्च पिण्डदानं च तथा ब्राह्मणभोजनम् । श्राद्धशब्दाभिधेयं स्यादेकस्मिन औपचारिकम् ।।
श्रीमद् भागवत कथा सुनने से जीवन धन्य धन्य हो जाता है। इस पुराण में 18 स्कन्ध एवं 335 अध्याय हैं। व्यास जी ने 17 पुराणों की रचना कर ली लेकिन श्रीमद्भागवत कथा लिखने पर ही उन्हें सन्तोष हुआ। फिर व्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को श्रीमद्भागवत पढ़ायी, तब शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को जिन्हें सात दिन में मरने का श्राप मिला, उन्हें सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी। जिससे राजा परीक्षित को सात दिन में मोक्ष की प्राप्ति हुयी।
श्रीमद् भागवत एक ज्ञान यज्ञ है। यह मानवीय जीवन को रसमय बना देता है। भगवान कृष्ण की अद्भूत लीलाओं का वर्णन इसमें समाहित है। भव-सागर से पार पाने के लिये श्रीमद् भागवत कथा एक सुन्दर सेतु है।
श्रीमद् भागवत वेद रूपी वष्क्षों से निकला एक पका हुआ फल है। शुकदेव जी महाराज जी के श्रीमुख के स्पर्श होने से यह पुराण अमृतमय एवं मधुर हो गया है। इस फल में न तो छिलका है, न गुठलियों हैं और न ही बीज हैं। अर्थात इसमें कुछ भी त्यागने योग्य नहीं हैं सब जीवन में ग्रहण करने योग्य है। अमृत से भरे इस रस का पान करने से जीवन धन्य-धन्य हो जाता है। इसलिये अधिक से अधिक श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करना चाहिये। जितनी ज्यादा कथा सुनेंगे उतना ही जीवन सुधरेगा।
श्रीमद् भागवत करने से पित्रों का उद्धार हो जाता है। भागवत पुराण करवाने वाला अपना उद्धार तो करता ही है अपितु अपने सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। पापी से पापी व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से श्रीमद्भागवत की कथा सुन ले तो उसके भी समस्त पाप दूर हो जाते हैं। जीवन पर्यन्त कोई पाप कर्म करता रहे और पाप कर्म करते-करते मर जाय एवं भयंकर भूत-प्रेत योनि में चला जाय, यदि उसके नाम से हम श्रीमद्भागवत कथा करवायें तो वह भी बैकुण्ठ लोक को प्राप्त करता है। इसके पीछे एक अद्भुद एवं विचित्र कथा है।
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतं द्रवसंयुतं ।
पिवत भागवतं रसमालयं महुरसो रसिका भुविभावुकाः ।।
तुंगभद्रा नदी के किनारे आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहते थे। ब्राह्मण की पत्नी धुंधली दुष्ट प्रकृति की थी। वह जिद्दी, अहंकारी और लोभी थी। आत्मदेव जी के घर में कोई कमी नहीं थी। लेकिन उनकी कोई सन्तान नहीं थी। एक दिन उन्हें स्वप्न हुआ कि तुम्हारी कोई सन्तान नहीं, इसलिये तुम्हारे पितर बड़े दुःखी हैं और तुम्हारे दिये हुये जल को गर्म श्वास से ग्रहण करते हैं। आत्मदेव जी को बड़ा दुःख हुआ। सोचने लगे कि मेरी सन्तान नहीं इसलिये पित्रों के दोष से ही मेरे घर में गाय का कोई बछड़ा नहीं होता और न ही पेड़ पर फल लगते हैं। सन्तानहीन व्यक्ति के जीवन को धिक्कार है। वह तो इह लोक-परलोक दोनों ही में दुःख पाता है। एक दिन सबकुछ छोड़-छाड़कर दुःखी मन से आत्मदेव जी सीधे वन चले गये। दो-तीन दिन तक वन में विलाप करने के पश्चात् चात् एक दिन उन्हें वहाँ एक महात्मा के दर्शन हुये और अपने दुःख का कारण बताया। महात्मा ने आत्मदेव जी को एक फल दिया और कहा कि इस फल को अपनी पत्नी को खिला देना। इससे उसका पुत्र हो जायेगा। आत्मदेव जी घर आये और अपनी पत्नी धुंधली को वह फल दे दिया। धुँधली ने सोचा कि ये पता नहीं किस बाबा से उठा लाये हैं, फल खाके कुछ ही गया तो! चलो सन्तान हो भी जाय तो उसे पालने में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, मैं गर्भवती हो गयी तो मेरा रूप-सौन्दर्य ही बिगड़ जायेगा। ऐसा सोचकर उसने वह फल घर में बँधी बन्च्या गाय को खिला दिया और आत्मदेव जी से कहकर छह-सात महीने के लिये अपनी बहिन के घर चली गयी। कुछ महीनों बाद बहिन का पुत्र लेकर लौटी और आत्मदेव जी से कहा कि मेरा पुत्र हो गया। आत्मदेव जी बड़े प्रसन्न हुये और धुंधली के कहने पर उस पुत्र पुत्र का नाम धुँधकारी रख दिया। इधर धुँधली ने जो फल अपनी बन्ध्या गाय को खिलाया था उस गाय ने भी एक सुन्दर से बालक को जन्म दिया। जिसका पूरा शरीर मनुष्य की तरह और गाय की तरह उसके कान थे। इसलिये आत्मदेवजी ने उसका नाम गौकर्ण रख दिया। धीरे-धीरे दोनों बालक बड़े होने लगे तो गौकणं पढ़-लिखकर विद्वान और ज्ञानी बना, लेकिन धुँधकारी बड़ा दुष्ट पैदा हुआ।
गौकर्ण पढ़ने बनारस चला गया। धुँधकारी गाँव में ही बच्चों को पीटता, वृद्धों को परेशान करता, चोरी करता, धीरे-धीरे डाका डालने लगा और बड़ा डाकू बन गया। माँस-मदिरा का सेवन करने लगा। आत्मदेवजी को बड़ा दुःख हुआ, बहुत समझाया, लेकिन पुत्र नहीं माना। दुःखी मन से आत्मदेव जी वन को चले गये और भगवान का भजन करते हुये शरीर का परित्याग कर दिया। अब घर में माँ को भी धुँधकारी परेशान करने लगा, पीटने लगा। एक दिन धुँधली ने भी अर्द्धरात्रि में कुँए में कूदकर आत्महत्या कर ली। अब धुँधकारी घर में पाँच- पाँच वेश्याओं के साथ रहने लगा। एक दिन धन के लोभ में उन वेश्याओं ने धुँधकारी को मदिरा पिलाकर जलाकर मार डाला और उसका सारा धन लेकर भाग गयी। धुँधकारी जीवन भर पाप कर्म करता रहा और मरने के बाद प्रेत योनि में चला गया। गौकर्ण जी तीर्थ यात्रा से लौटे तो जाना कि धुँधकारी प्रेत-योनि में भटक रहा है। तब गौकर्ण ने भाई के निमित्त श्रीमद्भागवत की कथा करवाई। सात दिन कथा सुनने के पश्चात् धुँधकारी प्रेत-योनि से विमुक्त होकर भगवान विष्णु के लोक में पहुँच गये। इसलिये पितरों के निमित्त श्रीमद्भागवत कथा करवाने से पितरों को मुक्ति मिल जाती है।
पितरों को प्रसन्न करने के पांच अचूक उपाय
- प्रतिदिन पढ़ें हनुमान चालीसा।
- श्राद्ध पक्ष में अच्छे से करें श्राद्ध कर्म, गरीब, अपंग व विधवा महिला को दें दान।
- गीता का 7वां अध्याय या मार्कण्डेय पुराणांतर्गत ‘पितृ स्तुति’ करें।
- तेरस, चौदस, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन गुड़-घी की धूप दें।
- गया में जाकर तर्पण पिंडदान करें।
श्राद्ध के कितने प्रकार होते हैं
श्राद्ध के अनेक प्रकार हैं- नित्य श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, एकोदिष्ट श्राद्ध, गोष्ठ श्राद्ध आदि-आदि।
- नित्य श्राद्धः यह श्राद्ध जल द्वारा, अन्न द्वारा प्रतिदिन होता है। श्रद्धा-विश्वास से किये जाने वाले देवपूजन, माता-पिता एवं गुरुजनों के पूजन को नित्य श्राद्ध कहते हैं। अन्न के अभाव में जल से भी श्राद्ध किया जाता है।
- काम्य श्राद्धः जो श्राद्ध कुछ कामना रखकर किया जाता है, उसे काम्य श्राद्ध कहते हैं।
- वृद्ध श्राद्धः विवाह, उत्सव आदि अवसर पर वृद्धों के आशीर्वाद लेने हेतु किया जाने वाला श्राद्ध वृद्ध श्राद्ध कहलाता है।
- सपिंडित श्राद्धः सपिंडित श्राद्ध सम्मान हेतु किया जाता है।
- पार्व श्राद्धः मंत्रों से पर्वों पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्व श्राद्ध है जैसे अमावस्या आदि पर्वों पर किया जाने वाला श्राद्ध।
- गोष्ठ श्राद्धः गौशाला में किया जाने वाला गौष्ठ श्राद्ध कहलाता है।
- शुद्धि श्राद्धः पापनाश करके अपनी शुद्धि कराने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है वह है शुद्धि श्राद्ध।
- दैविक श्राद्धः देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दैविक श्राद्ध किया जाता है।
- कर्मांग श्राद्धः आने वाली संतति के लिए गर्भाधान, सोमयाग, सीमान्तोन्नयन आदि जो संस्कार किये जाते हैं, उन्हें कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।
- तुष्टि श्राद्धः देशान्तर में जाने वाले की तुष्टि के लिए जो शुभकामना की जाती है, उसके लिए जो दान पुण्य आदि किया जाता है उसे तुष्टि श्राद्ध कहते हैं। अपने मित्र, भाई, बहन, पति, पत्नी आदि की भलाई के लिए जो कर्म किये जाते हैं उन सबको तुष्टि श्राद्ध कहते हैं।
श्राद्ध में विशेष ध्यान रखने योग्य बातें:
Shradh Kaise Karna Chahiye : श्राद्ध का आयोजन किसी पवित्र स्थान पर, जैसे तीर्थ या नदी किनारे, किया जाता है। ध्यान रखें स्थान कोई भी हो, स्थान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। गया, काशी, प्रयाग, और हरिद्वार जैसे तीर्थों में श्राद्ध करना अत्यधिक पुण्यदायी माना जाता है।
श्राद्ध का प्रमुख अंग पिंडदान और तर्पण है। पिंडदान में चावल, जौ, तिल, दूध और घी से बने पिंड का दान किया जाता है। तर्पण में जल और तिल मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है।
श्राद्ध में अन्न आदि के वितरण का विधान
जब निमंत्रित ब्राह्मण भोजन से तृप्त हो जायें तो भूमि पर थोड़ा-सा अन्न डाल देना चाहिए। आचमन के लिए उन्हे एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है। तदनंतर भली भांति तृप्त हुए ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर भूमि पर उपस्थित सभी प्रकार के अन्न से पिण्डदान करने का विधान है। श्राद्ध के अंत में बलिवैश्वदेव का भी विधान है।
- वायु पुराण के अनुसार ब्राह्मणों से सत्कारित तथा पूजित यह एक मंत्र समस्त पापों को दूर करने वाला, परम पवित्र तथा अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाला है।
- श्राद्ध के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यधिक शुभ माना जाता है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद उन्हें वस्त्र, दक्षिणा और अन्य दान देने से श्राद्ध का फल पूर्ण माना जाता है।
- श्राद्ध में जो भोजन बनाया जाता है उसमे तामसिक और प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग निषिद्ध होता है। श्राद्ध के भोजन में खासकर खीर, पूरी, दही, और तिल का प्रयोग किया जाता है।
- श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को उस दिन व्रत रखना चाहिए। विशेष रूप से वह तामसिक भोजन और अन्न का सेवन न करे।
- श्राद्ध करते समय व्यक्ति को शांत और संयमित रहना चाहिए।
- श्राद्ध के दौरान पवित्रता का अत्यधिक ध्यान रखा जाता है। किसी भी अशुद्धि या अपवित्रता से बचना चाहिए।
विशेष टीप : पितृपक्ष में कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश या मुंडन संस्कार नहीं किया जाता है। श्राद्ध के नियम का पालन करना व्यक्ति के कर्तव्यों में आता है।
Comments