आयुर्वेद

जल एक-रूप अनेक : आयुर्वेद के अनुसार जल के औषधीय गुण

Ayurveda के अनुसार जल के औषधीय गुण : हमारा शरीर 70% पानी से बना है, इसलिए पानी हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण यौगिक है।  लेकिन क्या आप जानते है एक जैसा दिखने वाला जल अपने आप में एक विशेष गुण रखता है। आइऐ जानते हैं जल के औषधीय गुण एवं प्रकार.

नये मिट्टी के घड़े में रखा हुआ जो नदीजल सूर्यकिरणों से संतप्त छत्र, अमृत, विष व वज्र ये चार जल के गुण या प्रभाव होते हैं।भोजन के उपरान्त प्यास लगने पर जल छतरी की तरह रक्षक का काम करता है। प्रात:में जल अमृत का काम करता है। अभुक्त अर्थात् भूख लगने पर अन्न न खाकर पानी से ही पेट भर लिया जाए तो यह जल भूख को खत्म करने के लिए विष का काम करता है। तथा भोजन के साथ जल वज्र का काम करता है- अर्थात् वज्र के समान दृढ़ता कारक होता है।

भूख से व्याकुल जिस व्यक्ति के हृदय व कण्ठ सूख गए हैं, वह इस अवस्था में तुरन्त ही भोजन शुरू न करे, प्रत्युत पहले थोड़ी मात्रा में ( दो तीन घूंट ) शीतल जल पीवे। ऐसा करने से उसके हृदय व कण्ठ की शुद्धि होती है, तथा अन्न सुखपूर्वक नीचे उतर जाता है, आमाशय में चला जाता है। तदनन्तर जो स्निग्ध (चिकनाई युक्त ) व उष्ण भोजन किया जाता है, उससे मनुष्य का सन्तर्पण होता है।

जिस अशुद्ध या अनुचितरूप से प्रयुक्त जल से सभी भयावह रोग पैदा हो जाते हैं, वही जल समुचित रूप में प्रयोग में लाया जाए तो उन सभी रोगों का निवारक औषध बन जाता है।

रात को उष्ण जल पीने से वह कफसमूह को नष्ट कर देता है, वात का निवारण करता है तथा अजीर्ण को पचा देता है। प्रतिदिन (प्रात: उठकर) जल के आठ चुल्लू पीने वाला मनुष्य हाथी जैसी बलिष्ठता व ताजगी प्राप्त करके सुखपूर्वक सौ वर्ष तक जीता है।
घनी रात बीतने पर प्रातः उठकर जो मनुष्य नासिका से पानी पीता वह बुद्धिसम्पन्न, नेत्रों से गरुड़ के समान तीव्र दृष्टि वाला, झुर्रियों व पलित (केशों की श्वेतिमा) से रहित व सर्वरोगमुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति प्रतिदिन तीन समय (प्रातः, मध्याह्न व सायम् ) शीतल जल से मुख भरके आँखों पर जल से छींटे देता है वह कभी भी नेत्र रोगों से पीड़ित नहीं होता है।

विभिन्न नदियों के तालाब का जल अपने आप रखता है विशेष गुण

गंगाजल मधुर अत्यन्त स्वच्छ, रुचिकर व हितकर होता है। यह भोजन द्रव्यों के पाक के लिए अतीव उचित माना जाता है तथा पाचक होता है। गंगाजल पाप (दोष) का हरण करने वाला, तृष्णा (प्यास की व्याकुलता ) व मोह को नष्ट करता है। यह मेधा (शास्त्र ग्रहण करने वाली बुद्धि) के लिए अति हितकारी है तथा प्रज्ञा (लोकव्यवहार-निष्णात बुद्धि) को बढ़ाता है। यह पद्म आयुर्वेदमहोदधि (सुषेण निघण्टु ) के नेपाल से उपलब्ध हस्तलेख में ही मिला है।

यमुना : यमुना जल पूर्वोक्त गंगाजल से कुछ भारी, स्वादु व परम पित्तहर होता है। यह वातकारक, जठराग्निवर्धक एवं रूक्ष होता है।

नर्मदा : नर्मदा का जल अति स्वच्छ, प्रशस्त, शीतल, लघु व लेखन होता है। यह पित्त व कफ का शमन करने वाला तथा सर्वरोगहर माना जाता है। (अग्निगुणयुक्त) होते हुए भी शीत प्रभाव वाला होता है तथा दाद, कुष्ठ व विष का निवारण करता है।

वर्षाजल : दिव्यजल ( वर्षाजल )- दिव्य अर्थात् ‘दिव्’ (आकाश) से गिरने वाला वृष्टिजल त्रिदोषशामक, पथ्य, स्वादु, हृद्य व जीवन (जीवनी शक्ति को बढ़ाने वाला), आमघ्न (आँव को पचाने वाला), पिपासाघ्न (तृष्णानिवारक) व मनोहारी होता है।

नदियाँ : पूर्वदेश (पूर्वी भारत) की सभी नदियाँ वातकफकारक होती हैं। पश्चिम देश (पश्चिमी भारत) की सभी नदियाँ पित्तवर्धक व कफवातनाशक होती हैं। इस प्रकार संक्षेपतः बड़ी नदियों का वर्णन किया है। इन बड़ी नदियों के साथ मिलने वाली क्षुद्र (छोटी नदियाँ) भी इन्हीं (बड़ी नदियों) जैसे गुणों वाली होती हैं।

समुद्र : समुद्र का जल विस्र (कच्चे मांस की गन्ध वाला), अत्यन्त क्षार (खारा) होता है। यह सर्वदोषकारक व अचक्षुष्य (नेत्रों के लिए अहितकर ) होता है। समुद्रजल मद (नशा), प्लीहा के रोग, गुल्म व उदावर्त्त का नाशक होता है।

अब गुण-दोष की दृष्टि से दिव्य आदि जलों का वर्णन करेंगे-

दिव्य, आन्तरिक्ष, कौप, चौण्डेय, सारस, ताडाग, औद्भिद् व शैल इन भेदों से आठ प्रकार का माना गया है।

शरद् ऋतु : शरद् ऋतु के बादलों द्वारा बरसाया गया महान् वैदूर्यमणि के समान निर्मल, मधुर, सर्वदोषहर जल ‘दिव्य’ नाम से जाना जाता है। वर्षाकालीन मेघों द्वारा बरसाया हुआ अव्यक्त धवल जल ‘आन्तरिक्ष जल’ माना जाता है।

पर्वत : पर्वत से निकली नदी में गोमेद मणि के समान कान्ति वाला जल ‘नादेय जल’ कहलाता है।

भूमि : भूमि को खोदने पर निकलने वाला महानील के समान कान्ति वाला ‘कौप जल’ कहा जाता है।

लता : लता – वितान से आच्छादित, शीर्ण शिलाओं से आवृत, श्याम मेघ व नीलकमल जैसी कान्ति वाला जल ‘चौण्ड्य’ कहलाता है।

नदी : नदी या पर्वत से बहकर आया हुआ, एकान्त स्थानों में स्थित कुमुद एवं कमल से आच्छादित जल ‘सारस’ कहलाता है प्रशस्त भूमि भाग में स्थित अनेक वर्षों से सिञ्चित कषाय व मधुर आस्वाद वाला जल ‘ताडाग जल’ कहलाता है। पर्वतशिखरों से निकलने वाला, वायु तथा हिम व आतप से सम्पर्कित लघु, शीतल, निर्मल, स्वादु जल प्रस्रवण (झरने) के जल के रूप में प्रसिद्ध है। भैंसा,घोड़ा, गौ, मृग, अज (बकरा / बकरी),हाथी आदि द्वारा दूषित न किये इन उपरोक्त जलों को मिट्टी के पात्रों में रखें।

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