धर्म

संत श्री बिहारिन देव की जीवनी

“बसी वृंदावन उत्तम ठाऊँ, सत्संगति परमारथ पाऊं | नित दंपति संपत्ति दिखाऊं, श्री बिहारिनिदासी भई गुन गाऊं ||”

सूरध्वज ब्राह्मण वंशी राजा मित्रसेन बादशाह के प्रधान दीवान थे। वे महान् धर्मात्मा तथा उदार थे। अतुल सम्पत्ति होने पर भी दम्पती सन्तान के बिना अत्यन्त दुःखी थे। दान, पुण्य, देवतादि का यजन और यंत्र-मंत्र आदि अनेक यत्न करने पर भी मन की आशा-पल्लवित न होते देखकर उनके मन में अतीव उदासी छा गई। एक दिन राजा की खिन्नता देखकर उनके प्रिय मित्र और प्रवीण दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी गौड़ ने राजा को सांत्वना देते हुए कहा कि आपकी भाँति मैं भी पुत्र हेतु अनेक साधन कराने के उपरान्त अति दुःखी और उदास हो गया था। एक दिन अचानक श्री वृन्दावन चला गया। वहाँ संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शनकर हृदय को अतीव हर्ष हुआ और मन में विचार आया की यदि ये संत सुखस्वरूप हैं तो कृपा कर मुझे पुत्र प्रदान करें।

उन्होंने देखते ही मुझे निकट बुलाकर कहा – तू पुत्र के बिना उदास है। तेरे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य सम्पन्न दो पुत्र होंगे। वे अठारह वर्ष तेरे पास रहेंगे, फिर मेरे पास आकर कुंजबिहारी लाल के विमल विलास को विलसेंगे।
तब मैंने उनसे कहा – करुणानिधान! एक पुत्र मेरे हो और एक मेरे मित्र के घर हो। वह पुत्र के बिना महादुःखी है।
तब उन्होंने मित्र भावना की सराहना की और सच्चे मित्र भाव का उपदेश देकर कहा – प्रथम तेरे यहाँ पुत्र होगा। पाँच वर्ष के बाद तू अपने मित्र को यह वृत्तान्त सुनाना। वे अपनी पत्नी सहित यहाँ आवें और पुत्र को गोद खिलावें।
अब वह शुभ अवसर आ गया है। आप रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन और वर पाकर अद्भुत लाभ लीजिये।

श्रीचतुर्भुजदास जी की बात सुनकर मित्रसेन के तन-मन-प्राण आनंद से भर गये, मानो जाते हुए प्राण फिर से शरीर में लौट आये। वे अत्यन्त श्रद्धापूर्वक हर्षोत्कण्ठा से पत्नी सहित श्रीस्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन के लिए निधुवन आये। प्रीति सहित प्रणाम किया और शत मुहरें भेंटकर श्री स्वामी जी महाराज के श्रीमुखचन्द्र के दर्शन करके परमानन्दित हुए। हाथ जोड़कर विनती करते हुए मित्रसेन बोले – चतुर्भुजदास की दया से आप श्री के दर्शन करके जन्म-जीवन सफल हुआ। आपने जो यहाँ आने की आज्ञा दी थी, सो मैं आपकी शरण में आ गया हूँ।

श्रीस्वामी जी महाराज ने कहा – अच्छा किया जो तुम आये। अब तुम दम्पती कुछ एक दिन मथुरा में वास करो, पुत्र प्राप्ति अवश्य होगी। ये मुहरें उठा लो और मन लगाकर विप्र तथा साधु-संतों की सेवा करो। जब पुत्र एक वर्ष का हो जाय, तब उसे लेकर यहाँ आना।

एक वर्ष बाद भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और युगल श्री नित्य-विहारी के प्रेम की मूर्ति रूप पुत्र-रत्न प्रकट हुआ। मित्रसेन और चतुर्भुजदास जी सुनकर हर्षोत्फुल्ल हो उठे। आनन्दावेश में बहुत सा धन दान दिया और संत सेवा करी। एक वर्ष बीतने पर वे निधुवन आये और श्रीस्वामी जी महाराज को प्रणाम करके शिशु को श्रीचरणों से लगाया।
श्रीस्वामी जी महाराज रूप-लावण्य युत शिशु को अपना सरस अंश जान हँसकर बोले – यह बालक अति बड़भागी है। यह तैंतीस वर्ष तुम्हारे पास रहेगा, फिर विरक्त, महाअनुरागी और त्यागी होकर हमारे निकट रहेगा। कोटि पुत्रों के समान इसे जानना। फिर श्रीस्वामी जी महाराज ने बालक को कण्ठी, तिलक, प्रसादी, वस्त्रादिक देकर सिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिया और बिहारिणिदास नाम रखा।

माता-पिता ने श्रीस्वामी जी महाराज के चरण प्रक्षालन करके बालक के सिर पर जल छिड़का और चरणामृत पिलाया। बालक ने किलकते हुए घुटुरुवन चलकर श्री स्वामी जी महाराज का करुवा पकड़ लिया। मित्रसेन ने निवारण किया तो श्रीस्वामी जी महाराज मृदु मुस्काते हुए बोले – बिहारिणिदास अभी नहीं, फिर आकर इसे ग्रहण करना।
सात दिवस वृन्दावन वासकर मित्रसेन श्रीस्वामी जी महाराज से आज्ञा माँगकर मित्र सहित दिल्ली लौट आए। तेज-प्रभाव पुंज अनूप पुत्र-रत्न को लाड़ लड़ाकर दम्पती आनन्द-सिन्धु में नित्य मग्न रहने लगे।

आध्यात्मिक जीवन:
बिहारिणिदास जब बड़े हुए तब बराबर के सखाओं के संग खेल में श्री युगल-लीला का या रसिक महीपति श्रीस्वामी जी महाराज के चरित्र का अनुकरण करते थे। वे खेल-खेल में बालकों को श्रीस्वामी जी महाराज के स्वरूप का उपदेश देते थे। वे ध्यान सहित श्री हरिदास नाम जपते और सबसे ही ध्यान-जप करवाते थे। सचिव श्रीचतुर्भुजदास जी के पुत्र बिहारिणिदास से छह वर्ष बड़े थे। इनका जन्म भी श्रीस्वामी जी महाराज की कृपा से ही हुआ था और उन्होंने ही इनका नाम कृष्णदास रखा था। वे नित्यविहार के प्रेम-रंग में रात-दिन छके रहते थे। वे बिहारिणिदास से अति स्नेह करते थे, मानो एक प्राण-दो देह हों। दोनों परस्पर श्री युगल की और श्रीस्वामी जी महाराज की रसमयी मधुर चर्चा में अहर्निश छके रहते थे।
सकल सुख-सम्पत्तिमय अनुकूल वैभव-विलास प्राप्त होते हुए भी श्री बिहारिणिदास जी को सब लवण समान खारी-असार व दुःखद लगते थे। उनके हृदय-कमल पर तो श्री हरिदास चरण बसे हुए थे। निरन्तर श्री हरिदास नाम को रटना और नित्य केलि रंग में पगना ही तन-मन-प्राणों का स्वभाव बना हुआ था। ऐसे ही श्रीहरिदास चरण के और नित्यविहार के अनन्य अनुरागी श्रीकृष्णदास उनको जी मिल गये।

एक दिन श्री कृष्णदास जी को उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो आया। वे श्री बिहारिणिदास जी से बोले – यह शरीर इक्कीस वर्ष का होने को आया है। अब तक तो श्रीगुरु-कृपा से अमल और अविकारी बने रहे, यदि अब कहीं कुसंग लग गया तो विषय-रस में फँसकर सर्वस्व खो बैठेंगे। इसलिए मैं अभी श्री वृन्दावन श्री गुरु-श्रीस्वामी जी महाराज की शरण में जाऊँगा। वे कृपा वृष्टि कर मुझे परम विरक्त, भक्ति व विवेक सम्पन्न और नित्य नवेली केलि के अनुरागी बनावेंगे। फिर ऐसा दुर्लभ शुभ अवसर कब सुलभ होगा?

गद्गद कण्ठ से श्रीबिहारिणिदास जी बोले – आप परम निष्काम, वैराग्य-शिरोमणि और धन्य-धन्य हैं। आप तत्काल श्री वृन्दावन जाइये। मैं भी जल्दी ही आऊँगा और श्रीगुरु-चरणारविन्दों में प्रणाम करूँगा। ऐसा कहकर उन्होंने सभा सहित प्रणाम किया। श्री कृष्णदास जी तत्क्षण चलकर श्री वृन्दावन आये और नित्यविहार-सार आधार श्रीस्वामीजी महाराज के चरणकमलों में शरण पाकर परमानन्दित हुए।

श्री कृष्णदास जी की निर्मल प्रीति देखकर श्रीस्वामी जी महाराज ने उनका हाथ श्री वीठलविपुलदेव जी के हाथ में पकड़ाते हुए कहा – यह मेरा निज अंश है। इसको तुम अपनी शरण में ले लो।

श्री वीठलविपुलदेव जी ने आज्ञा मानकर श्री कृष्णदास जी को निज अनुगामी व परम उज्ज्वल धर्मी बना, श्री हरिदास तत्त्व सुखसार उपदेश कर नित्यविहार-सार रस में सराबोर कर दिया।

इधर श्री बिहारिणिदास जी रूप-लावण्य, शील-स्वभाव आदि गुणों से सबके प्रिय नयनांजनवत् होकर भी निरंजनवत् परम विरक्त और उपशम स्वभाव से युक्त थे। पन्द्रह वर्ष की आयु, रूप-लावण्य, तेज और यौवन की वृद्धि तथा महान् सुख वैभव, फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मद एवं मोह रहित, प्रेम-भक्ति-भाव सहित श्री हरिदास नाम व युगल मंत्र जापमय जीवन। असत् चर्चा सुहाती ही नहीं थी। अति उदार, उपकार परायण, सत्य, शूर, धीर तथा नम्र स्वभाव से इनकी शोभा शत गुण वर्द्धित होती थी।
जब इनके पिता राजा मित्रसेन ने शरीर त्यागा, तब शाह ने इनको मुख्य दीवान का पद सौंप दिया। इनके दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी से इनकी गुणावली सुन शाह बहुत सुख मानते और आदर करते। श्री बिहारिणिदास अपने मन को वृंदावन जाकर बस जाने की सीख देने लगे। 

श्रीस्वामी जी महाराज का अनुपम कृपा-प्रसाद प्राप्त कर श्रीस्वामी बिहारिणिदेव जी रसिक-अनन्य धर्म और नित्यविहार रस-रीति की उपासना में बहुत ही आगे बढ़ गये। उनकी रहनी-कहनी अत्यन्त उच्च कोटि की और सुदृढ़ थी।

जैसे ही उन्होंने जगत को पीठ दिखा कर व वृन्दावन वास कर तन से गोरी और मन से अत्यंत भोरी नवल किशोरीजी श्री राधारानी की शरण ली है एवं राधा नाम धारण किया है, वैसे ही उनके मन ने परम विश्राम पाया है।

अब वे सदा नित्य विहार के चिंतन में डूबे रहते, श्यामा-श्याम की लीला माधुरी के आस्वादन और उनके गुणगान में मस्त रहते व आहार-विहार, भोजन, स्नानादि सब भूले रहते। उनके जीवन से संबंधित एक बहुत प्रसिद्ध घटना है। एक बार वे यमुना में स्नान करने गए, उनके मुंह में दातुन था। वे तीन दिनों तक सड़क पर खड़े रहे, एक ही पद का गान करते और आनंद में समाहित रहे:

“बिहरत लाल-बिहारिन दोऊ श्री जमुना के तीरें तीरें”

युगल सरकार (राधा और कृष्ण) लीला प्रदर्शन कर रहे हैं और यमुना के किनारे विहरण कर रहे हैं।

उनकी रचनाएँ एक सामान्य साधक की समझ से बहुत अलग हैं। वह इस शुद्ध सुख में लिप्त था जहाँ साधक और गुरु इतने एकजुट हो गए हैं कि अब गुरु अपने साधकों को अपने बराबर या बल्कि अपने से ऊँचा मानता है, और, साधक वास्तव में अपने गुरु से कुछ भी न माँगते हुए निस्वार्थ भाव से देता रहता है।

उनके रस के पदों को समझना साधारण साधक की बुद्धि एवं दृष्टि से बहुत भिन्न है। वे उस सर्वोच्च रस में निमग्न थे जहाँ उपास्य और उपासक इतना घुल-मिल जाते हैं कि उपास्य उपासकों को अपने समतुल्य या अपने से बड़ा मान कर उसके अधीन रहने लगता है और उपासक उपास्य से कुछ भी लेने की इच्छा ना रख कर हमेशा उसे देते ही रहते हैं। निरंतर उपास्य के सुख का ध्यान होने के कारण, उनके सुख के लिए उन्हें आशीर्वाद देना चाहते हैं। यही उन्होंने अपने पदों में भी लिखा है:

“देत आसीस विहारिनि दासी करहुं नवल नित रलियां“

किशोरीजी के चरणों में प्रगाढ़ प्रेम होने के कारण वे बिहारी जी से सदा बेपरवाह रहते थे. स्वामी श्री बिहारिन देव जी ने 1670 के लगभग नित्य निकुंज में प्रवेश किया। उनकी समाधि निधिवन में है। उनकी शिष्य परंपरा में स्वामी श्री नागरीदास जी और श्री सरस दास जी प्रधान थे।

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