धर्म

वृन्दावन के रसिक श्री ध्रुवदास

श्री ध्रुवदास, वृन्दावन के रसिक, श्री हित हरिवंश महाप्रभु के तीसरे पुत्र गोपीनाथ के शिष्य थे। अपने बचपन के दिनों से, वह राधा कृष्ण के प्रति बहुत गहरी निष्ठा रखते थे। उनमें राधा कृष्ण को प्राप्त करके की तीव्र इच्छा एवं अभिलाषा बचपन से ही थी और वह यमुना नदी के पास और वृंदावन के जंगलों में भावावेश अवस्था में घूमते थे। एक दिन वह रास मंडल की तरफ आ गए और राधारानी के मिलन की तीव्र इच्छा हुई। वह रास मंडल पर ही खड़े रहे, यह सोच कर कि राधारानी के दर्शन एवं मिलन के बिना, इस जीवन का क्या उपयोग है? उन्होंने सोचा जब तक वो नहीं आती तब तक रास मंडल पर ही रहूँगा| पूरी रात बीत गई और अगला दिन बीत गया। लेकिन यह क्रम चलता रहा, दूसरी रात बीत गई और वह बिना सोये एवं खाये, तीव्र अभिलाषा से राधा रानी की प्रतीक्षा करते रहे|

ध्रुवदासजी देवबंद, जिला सहारनपुर के रहने वाले थे | इनका जन्म वहाँ के एक ऐसे कायस्थ कुल में हुआ था, जो आरम्भ से ही श्री हिताचार्य के सम्पर्क में आ गया था और उनका कृपा भाजन बन गया था | इनका जन्म सं. १६२२ माना जाता है इनके पिता श्यामदास जी श्री हितप्रभु के शिष्य थे ओर ये स्वयं उनके तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथ गोस्वामी के कृपापात्र थे | इसी से इनके चरित्रकार महात्मा भगवत मुदितजी ने इनको ‘परम्पराइ अनन्य उपासी’ लिखा है |

श्री हरिवंश कृपा से अल्प वय में ही गृहस्थ से विरक्त होकर ये वृन्दावन में वास करने लगे थे | आरम्भ से इनका एक ही मनोरथ था कि मैं कृपाभिसिक्त वाणी से प्रेम-स्वरूप श्री श्यामा-श्याम के अद्भुत, अखंड प्रेम-विहार का वर्णन करूँ | किन्तु ह्रदय में नित्य विहार का प्रकाश हो जाने पर भी वह वाणी में प्रस्फुटित नहीं हो रहा था | निरुपाय होकर इन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और श्री हिताचार्य द्वारा स्थापित रास-मंडल पर जाकर पड़ गये | दो दिन तक ध्रुवदास जी वहाँ पड़े रहकर अजस्र अश्रुपात करते रहे | इनकी इस करुण स्थिति को देख कर श्री राधा का कोमल ह्रदय विगलित हो उठा और उन्होंने तीसरे दिन मध्य रात्रि में प्रकट होकर अपने चरण-कमल का स्पर्श ध्रुवदास जी के मस्तक से करा दिया | चरण का आघात होते ही उसमें धारण किये हुए नूपुर बज उठे ओर उनकी दिव्य ध्वनि ध्रुवदासजी के तन-मन में पूरित हो गयी | इसके साथ ही इनको यह शब्द सुनाई दिये -वाणी भई जु चाहत कियो | उठि सो वर तोकौं सब दियौ |

कृतज्ञता के पूर्ण अनुभव के साथ धुर्वदासजी ने वृन्दावन विहारी श्री श्यामा-श्याम की नित्य-लीला का गान मुक्तकंठ से आरम्भ कर दिया और एक ऐसी अद्भुत प्रभाववाली वाणी की रचना हो गयी जो उनके चरित्रकार के अनुसार, थोड़े ही दिनों में चारों दिशाओं में प्रचलित हो गयी ओर रसिक जन उसका अनुशीलन अपनी परम निधि मानकर करने लगे | इस वाणी के प्रभाव से अनेक लोग घरबार छोड़कर वृन्दावन मे बास करने लगे | श्री भगवतमुदित ने लिखा है – वाणी श्री ध्रुवदास की, सुनि जोरी मुसिकात | भवगत् अद्भुत रीति कछु, भाव-भावना पाँति ||

     ध्रुवदासजी से पूर्व एवं उनके समकालीन प्राय: सभी श्री राधा-कृष्णोपासक महानुभावों ने फुटकर पदों में लीला-गान किया था | ये पद अपने आप में पूर्ण होते हैं, किन्तु उनमें लीला के किसी एक अंग की ही पूर्णता होती है, अन्य अंगो की अभिव्यक्ति के लिए दुसरे पदों की रचना करनी होती है | ध्रुवदासजी ने नित्य-विहार-लीला को एक अखण्ड धारा बताया है - नित्य विहार आखंडित धारा | एक वैस रस जुगल विहारा |

     इसकी धारावाहिकता का निर्वाह करने के लिए ध्रुवदासजी ने पद शैली का आश्रय न लेकर दोहा-चौपाइयों में लीला वर्णन किया है | इनसे पूर्व केवल प्रबन्ध-काव्यों में दोहा-चौपाइयों का उपयोग किया जाता था | ध्रुवदासजी ने पहली बार लीला वर्णन में इसका उपयोग किया ओर बड़ी सफलतापूर्वक किया | इनकी लीलाओं में प्रेम की विभिन्न दशायें समुद्र में तरंगो की भाँति उन्मंजन-निमंजन करती रहती हैं, जिससे लीला की अखंडता की सहज व्यंजना होती चलती है | 

सखी हेत उद्वर्तन लावै | आनन्द रस सौं सबै न्हवावैं |
सारी लाज की अति ही बनी | अंगिया प्रीति हिये कसि तनी ||
हाव भाव भूषन तन बने | सौरभ गुन गन जात न गने ||
रस पति रस कौं रचि पचि कीन्हौं | सो अंजन लै नैनन दीन्हौं ||
मेंहदी रंग अनुराग सुरंगा | कर अरु चरन रचे तेहि रंगा ||
बंक चितवनी रस सौं भीनी | मनु करुना की बरषा कीनी ||
झलमल रही सुहाग की जोती | नासा कबि रह्यो पानिप मोती ||
नेह फुलेल बार वर भीने | फुल के फुलन सौं मुहिं लीने ||

    इस प्रकार के वर्णन श्री श्यामा-श्याम की प्रेम स्वरूपता को ह्रदयंगम करने में बहुत सहायक होते हैं | इसके द्वारा उपासक का मन जागतिक प्रेम की स्थूलताओं का परित्याग करके दिव्य-भगवत्-प्रेम की सूक्ष्मताओं का अवगाहन करने लगता है | धुर्वदासजी की वर्णन शैली की उपयुर्क्त विशेषताओं को ध्यान में रखने से उनकी वाणी को समझाने में सहायता मिलती है | उनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थ बताए जाते है -

ग्रंथों की तालिका

  1. जीवदशा-लीला, 2. मनशिक्षा-लीला, 3. ख्याल-हुलास-लीला, 4. वैघकज्ञान लीला, 5. वृन्दावन वनसत-लीला, 6. बृहद् बावन पुराण की भाषा लीला, 7. भक्तनामावली-लीला, 8. सिद्धांत विचार लीला ( गद्य वार्ता ), 9. प्रीति चौवनी-लीला, 10. आनंदाष्टक-लीला, 11. भजनाष्टक-लीला, 12. भजन-कुण्डलिया-लीला, 13. भजनसत-लीला, 14. भजन-श्रृंगार-सत-लीला, 15. मन-श्रृंगार-लीला, 16. हितश्रृंगार-लीला, 17. सभामंडल-लीला, 18. रसमुक्तावली-लीला, 19. रसहीरावली-लीला, 20. रसरतनावली-लीला, 21. प्रेमावती-लीला, 22. प्रियाजू नामावली लीला, 23. रहस्यमंजरी लीला, 24. सुखमंजरी लीला, 25. नेहमंजरी-लीला, 26. वन विहार-लीला, 27. रंगविहार-लीला, 28. रसविहार लीला, 29. रंगहुलास-लीला, 30.रंगविनोद-लीला, 31. आनंददशाविनोद-लीला, 32. रह्स्यलाता-लीला, 33. आनंद लता लीला, 34. अनुरागलता-लीला, 35. प्रेमदशा लीला, 36. रसानन्द-लीला, 37. ब्रज-लीला, 38. जुगलध्यान-लीला, 39. नृत्यविलास-लीला, 40. मान लीला और 41. दानलीला

एक रात जब वह आधे जगे और आधे सोये की अवस्था में थे, तो उन्हें एक मधुर पायल की ध्वनि सुनाई दी और इसके बाद उनके सिर पर एक प्रेमपूर्वक स्पर्श महसूस हुआ। उन्होने अपने मस्तक पर राधा रानी का हाथ महसूस किया | अचानक उन्होंने देखा कि राधारानी उनके सामने खड़ी हैं। ध्रुवदास जी यह सब कुछ देख रहे थे, कुछ बोले ही नहीं, और राधारानी बोलीं कि “मैं कभी भी तुमसे दूर नहीं जाउंगी। मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी।” श्री राधारानी की कृपा को प्राप्त करने के बाद, उनका पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया। वह राधारानी के प्रेम का साक्षात् रूप बन गए| उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तकें एवं पद लिखे हैं, जिनमें से एक है “बयालीस” लीला हैं | जिसमे राधा कृष्ण की बयालीस लीलाएं है।

‘बोलिए लाड़ली लाल की जय’

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