धर्म

गुरु पुर्णिमा पर एक विचित्र कथा

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What is the short story of Guru Purnima : गुरु केवल व्यासपीठ पर बैठने वाला नहीं होता गुरु तो वो होता जो आपको सदमार्ग पर लेकर जाएं। आपको सही रहा दिखाए। राह भी ऐसी जिससे आपका एहीलोक ही नहीं वरन परलोक भी पार हो जाए। इस विषय पर एक कथा आती है।

एक बार रामकृष्ण परमहंस एक कथा कहते है कि मथुरा के पास यमुना किनारे एक ग्वालों की बस्ती थी, उसमें एक ग्वालिन प्रतिदिन दूध दही बेचने यमुना के पार दूसरे गांव जाती थी और शाम तक वापिस अपने गांव आ जाती थी। उसे यमुना पार जाने के लिए नौका से जाना पड़ता था इसके उसे एक तरफ के दो पैसे यानी दोनों तरफ के चार पैसे देने पड़ते थे। दूध दही बेचने के उसे दो रुपया मिलता था।

एक दिन मथुरा से लौट रही थी। विश्राम घाट के पास बाजार में एक वृद्ध पंडित जी कथा कह रहे थे। सहस्रों स्त्री-पुरुष श्रोता के रूप में कथामृत पान कर रहे थे। खाली मटकी सिर पर रखे हुये यह ग्वालिन भी खड़ी हो गई। पंडित जी शबरी प्रसंग कह रहे थे और भक्ति के गुण बता रहे थे जैसे मन्त्र जप मम दृढ़ विस्वासा“ यही भवसागर से पार होने की भक्ति है।

दोहा-
भटक रह्यौ संसार में, कर-कर भ्रष्टाचार ।
भव सागर से जीव, यह कैसे जावे पार ।।
तन बल, धन बल, बुद्धि बल, सरै न कौनहु काम ।
एक बार मुख से कहो, जय श्री राधेश्याम ।।

मनुष्य एक बार मुख से राधेश्याम कह लेगा, वह भवसागर से पार हो जायगा। फिर संसार की छोटी-मोटी नदियों को पार करना क्या बड़ी बात है ? दही बेचने वाली ने यह कथा सुनी तो गद्गद् हो गई। मटकी पृथ्वी पर रख दी; जहाँ खड़ी थी वहीं साष्टांग दण्डवत् पड़ गई। धन्य हो महाराज ! मेरे निमित्त बड़ा ही उपयोगी प्रसंग सुनाया।

आज वह नाव घाट पर न जाकर वन में होती हुई यमुना के किनारे पहुँच गई। उस पार सामने ही उसका ग्राम दिखाई देता था। श्रावण का महीना था, यमुना में लबालब जल भरा था। उसकी तेज धारा का वेग देख कर बड़ा भय लगता था। उसने राधेश्याम कह कर जल में पैर रखा। पांव नहीं डूबा, दूसरा भी रख दिया और एक एक कदम पर राधेश्याम-राधेश्याम बोलती हुई नदी पार कर ली।

ये देखकर खुश हो गई और अब तो वो नए सपने में डूब गई कि नाव के पैसे बचेंगे उन पैसों को जोड़कर घर का समान लाएगी और दूध दही को और बनाऊंगी। मथुरा से नई साडी लेकर आएंगी। अब तो उसको राधेश्याम नाम से प्यार हो गया हालांकि शुरुवात में ये नाम अपने संसारी काम के लिए लिया मगर प्यार तो गया नाम से। और अब हर काम करते हुए नाम जाप करती रहती। ऐसे ही कई दिन बीत गए और कुछ पैसे भी जोड़ लिए।

नाम जाप की वजह से कुछ बुध्दि भी निर्मल हो गई। अब एक दिन उसके मन में आया कि क्यों न पंडिजी को भोजन का निमंत्रण दिया जाए। फिर क्या था, एक दिन पंडित जी के घर पहुंच गई और बढ़ी विनम्रता से बोली महाराज आप मेरे घर भोजन पर पधारिए। मै यहीं यमुना पार एक गांव में रहती हूं। पंडित जी मान गए और अगले दिन आने का बोल दिया। अगले दिन वो ग्वालिनी पंडित जी को लेने आ गई और अपने गांव लेके चली। पंडित जी बोले बेटा यहां कहां ले कर जा रही हो यमुना घाट तो दूसरी तरफ है। घाट पर नाव मिलेगी। ग्वालिन बोली महाराज घाट पे जाके क्या करेंगे दूर पड़ेगा यहां से ही चलते हैं। पंडित जी ने सोचा शायद इसने कुछ प्रबंध करके रखा होगा।

पंडित जी धोती सम्हालने लगे, ग्वालिन पानी पर पैर रक्खे खड़ी हुई उन्हें बुला रही थी। पंडित जी ने कहा कि ‘बेटी तू पानी में कैसे चल रही है?’ वह बोली- ‘वाह महाराज ! आपकी ही बताई युक्ति से तो मैं पानी पर चल रही हूँ। आप ये क्या कह रहे हैं?’
ये सुनकर पंडित जी ने पहला पैर यमुना नदी में रखा तो कमर तक जल में चले गये। पंडित जी घबरा कर लोट पड़े उससे कहने लगे ‘बेटी! जहाँ तू चल रही है वहाँ पर क्या पुल बना है? या पत्थर है। लोट कर तू मेरा हाथ पकड़ ले, तेरे चरण चिन्हों पर ही पीछे-पीछे मैं चलूंगा।

ग्वालिन ने हाथ पकड़ लिया, आइये, राधेश्याम कह कर चलने लगी। ज्योंही पंडित जी ने पैर रक्खा त्यों हो कमर से पानी में चले गये। हाथ को छुड़ा कर भागने लगे मगर उसने न छोड़ा। राधेश्याम कहती हुई आगे बढ़ने बगी। पंडित जी घबरा कर चिल्लाने लगे।

पंडित जी बोले बेटा ये क्या कर दिया मुझे वापिस जाने दे मेरे धाम, ग्वालिन बोली पंडित जी बोलो जय श्री राधेश्याम। पंडित जी उल्टे सीधे गोते खाने लगे और घबराते हुए बोले-‘तू कोई डाकिनी है या चुडैल क्यों मेरी जान लेना चाहती है।’ ग्वालिनी बोली पंडित जी बोलो जय श्री राधेश्याम। वो बार बार बोलती रही पंडित जी बोलो जय श्री राधेश्याम।

पंडित जी ने बोल दिया ‘उबारो हे घनश्याम। जय श्री राधेश्याम।’ और पंडित यमुना पार हो गए। किनारे पर पहुंच कर ग्वालिनी की बहु और बेटा जो उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे, उनका स्वागत सत्कार किया। पंडित जी आराम से बैठ कर भोजन किया। भोजन उपरांत पांडेजी ने एकांत में उस ग्वालिन से पूछा बेटा ये चमत्कार कैसे किया।


ग्वालिन बोलीः-
बाबा बोलो राधेश्याम ।
भव सागर के हेत यही देगा केवट का काम ।।
पार जाऊँ यमुना मैया के नित्य सबेरे शाम ।
इसी नाम की नौका पै चढ़ः आऊ’ अपने धाम ॥
जिसने दिया ’बिनीत’ मन्त्र मय प्यारा प्रभु का नाम ।
उस सद्‌गुरु के पद पद्मों में बारम्बार प्रणाम ।
बाबा बोलो राधेश्याम ॥

पंडित जी ने प्रश्न किया कि “वह सद्‌गुरु कौन है।?“ ग्वालिन चरणों में गिरती हुई बोली- “आप ही तो हैं।“
पंडित जी ने कहा कि- ये क्या कह रही है।
गोपिका ने कहा कि- “आपने व्यासासन पर बैठ कर मेरे जैसे अनेक पतित प्राणियों को पार किया है और कईयों को करते रहेंगे, इसलिए आप ही सच्चे गुरु हैं।

पंडित जी ने कहा- ’तू व्यास गद्दी पर बैठने वालों की भी गुरु है। मैं तो निरा पोथी पांडे ही रहा, तू ने अपने दृढ़ विश्वास से आनन्द कन्द का नाम जप कर अगम यमुना जल को सुगम पथ बना लिया और मैं घोंघा बसन्त की तरह तेरे साथ डूबता, उछलता चिल्लाता हुआ पार हो सका । मुझे रह-रह कर यही शंका हो रही है कि उस जल में तेरी तो पैर की एक भी उँगली न भीगी और मैं गोते खा-खा कर पार हुआ।


गोपिका हाथ जोड़ कर कहने लगी कि ’गुरुदेव’ ! क्षमा कीजियेगा। जब आप जल में प्रवेश करने के पहले अपनी धोती सम्हालने लगे, उसी समय मैं समझ गई थी कि आप सभा में मन्त्र केवल सुनाते हैं। उस मन्त्र पर न तो आपको स्वयं दृढ़ विश्वास ही है, और न उसका आप जाप ही करते हैं।

आपको जो कष्ट हुआ वह इसलिए कि आपने पहले मुझे अपने शरीर का बल दिखाया, बल पूर्वक हाथ को छुड़ाना चाहा था। लेकिन मैं आमन्त्रित ब्राह्मण को बिना भोजन जिमाये कैसे लौटा देती ? जब आपके तन बल ने काम न दिया तब आपने धन बल का प्रलोभन दिया। जब आपके सभी बल बेकार हो गये तब घबड़ाने लगे थे उसका यही कारण था ।

अब आपके सांसारिक सभी प्रकार के बल पराजित हो चुके थे तब निर्बल बनकर आपने एक बार पुकारा था कि- ’उबारो राघावर घनश्याम’ उसी समय पार हो गये।

मन्त्र जाप मम दृढ़ विस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ॥

बोलिये भक्त वत्सल भगवान की जय

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